#थैंक्स नरैण-दादू (नरेन्द्रभाई दामोदरदास मोदी)
#थैंक्स अमित चाचू (अमित अनिल कुमार जैन शाह)
#थैंक्स जगत जी ( जगत प्रकाश नड्डा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ‘गरीबी ‘ और ‘ संघर्ष ‘ के दिनों के साथी)
तो कुल जमा ‘चौथी-बार ‘,और आपकी भाजपा के नौ वर्ष के राज में ‘तीसरी-बार’ मुझे (CS Upadhyay) उच्च-न्यायालय का न्यायमूर्ति न बनने देने के आपके ‘अमिट-संकल्प ‘ के लिए आप तीनों का थैंक्स!!! संभवतः परमप्रभु एवम् परम-सत्ता मुझसे कोई बड़ा कार्य कराना चाहती है और आप अवरोध बने, यह जिम्मेदारी आपके हिस्से में आयी है । मैं अक्सर कहता हूँ कि राम वन को गये तो ‘बन ‘ गये शेष सिर्फ रामायण का मात्र ‘पात्र ‘ बनकर ही रह गये। राम के वनवास में मन्थरा व कैकयी तो निमित्त मात्र थे असल में उसके नेपथ्य में युगों-युगों के आह्वान थे, कहीं केवट तो कहीं शबरी ,कहीं जटायु तो कहीं श्रीहनुमान, कहीं बाली तो कहीं सुग्रीव, कहीं अंगद तो कहीं जामवंत कहीं नल तो कहीं नील, कहीं वनवासी-गिरिवासी तथा पूरी वानर-सेना के साथ-साथ सम्पूर्ण निशाचर-जाति के आह्वान…कि राम आयेंगे-हम उनकी सेवा करेंगे तो कहीं राम हमारा उद्धार करेंगे आदि-इत्यादि ।
स्मृतियों के कोलाज में लौटता हूँ (CS Upadhyay) तो नाना ( देश के नानाजी देशमुख) संघ-प्रमुख रहे रज्जू भइया ( देश के प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह) और संघ के सह सर-कार्यवाह रहे हो.वि.शेषाद्रि स्मरण आते हैं जिनकी एक भावुक-अपील तथा आत्मीय-आदेश पर ‘सेटलड-लाइफ़ ‘ और ‘प्रामिसिंग-कैरियर छोड़कर मातृभाषा के सम्मान एवम् प्रतिष्ठा की बहाली का जुनून ऐसा सिर चढ़ा कि ‘आगा -पीछा ‘ सब भूल गया ।
इस जुनून को ‘दाद’ मिलती है तो ‘भरोसा ‘ बढ़ जाता है और जब ‘प्रहार ‘ होता है तो लड़ने की ताकत और चलते रहने की शक्ति कई गुना और ‘बढ़’ जाती है । देश के तमाम हिस्सों से जब कोई पत्र आता है या मोबाइल पर सूचना मिलती है कि मैं निर्धनता या अन्य विवशता के कारण अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाया या पायी परन्तु आपके प्रयासों के कारण आज, मैं हिन्दी माध्यम से एल-एल.एम. कर पा रहा हूँ या पा रही हूँ तो सचमुच, मैं ऐसा अनुभव करता हूँ जैसा एक माॅ अपनी सन्तान के सर्वोच्च-अंक प्राप्त करने पर खुश होती है ।
कदाचित् आप भूल रहे हैं कि ‘मातृभाषा ‘, ‘ संघर्ष ‘, और ‘बलिदान ‘ मेरे ‘रक्त ‘ व ‘वंश ‘ में है, दशकों के मेरे सतत् संघर्ष के मुकाबले अडिग रहकर सफलता प्राप्त करने के पीछे एक मजबूत रीढ़ वाला इंसान है जो अन्दर से मुझे कभी ‘थकने-हारने ‘ नहीं देता । मातृभाषा मेरे थके कदमों को गतिमान देती है । मातृभाषा के लगातार ‘अपमान ‘ और ‘उपेक्षा’ से मुझे लड़ाई की ‘नई-वजह ‘ मिल ही जाती है । ‘ मातृभाषा की राजनीति ‘ और ‘ राजनीति की मातृभाषा’ से परे, मैं मायके में आई उस बेटी की तरह मगन हूँ जो पीहर पहुँचकर ससुराल के सारे कष्टों व मान-अपमान को भूल जाती है । मेरा एकाकी जीवन मेरी विवशता नहीं बल्कि पसन्द है । मेरी चेतना में सर्दी-गर्मी, जाड़ा-पाला, ढिबरी-रोशनी, धूल-धककड़, कीचड़-पानी, आंधी-तूफान, बाढ़-महामारी सब-कुछ साथ है ।
जो धरती जिन्दगी को ‘पनाह ‘ देती हैं और जो भाषा जिन्दगी को ‘रफ्तार ‘ देती है उसका मर्म तो वही जानेगा-समझेगा जो उसके नजदीक-निकट खड़ा होगा। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर गोष्ठियों, सम्मेलनों, आयोजनों, वक्तृताओं और वाणी-विलास से मातृभाषा को प्राणवायु नहीं मिलेगी,यह खेल बहुत खेला जा चुका है, इसे रोकना हर भारतवंशी का दायित्व है। ‘कविता ‘ और ‘क्रान्ति ‘ एक साथ चलाने वालों को मातृभाषा, माँ की तरह सहज-सरल, ममतामयी-समतामयी व स्वाभाविक कैसे लग सकती है? उनकी चिंताएं मुखर कैसे हो सकती है? मुझे अपने उन सभी साथियों से भी कोई शिकायत नहीं है ,जिन्होंने मेरे साथ अखबारों में काम किया, उस समय के संवाददाता- मित्र आज देश के बड़े अखबारों के सम्पादक है लेकिन वे सभी सरकारी-विज्ञप्तियां छापने में अस्त-व्यस्त-मस्त और फिर पस्त हैं, मातृभाषा की प्रतिष्ठा के देशव्यापी-अभियान को छापने-दिखाने-सुनाने के लिए न उनके पास न कागज हैं और न समय।
मुझे उन भारतवंशियों से भी कोई शिकायत नहीं है जो दिन-रात मोबाइल की स्क्रीन पर आंखें गढ़ाये रहते हैं अपने सारे जरूरी काम स्थगित करते रहते हैं लेकिन मातृभाषा की पुनर्स्थापना के देशव्यापी-अभियान ‘हिन्दी से न्याय’ की टीमों द्वारा प्रेषित सूचनाओं की सराहना करने, उस पर अपने सुझाव प्रेषित करने, यहाँ तक कि मात्र प्रेषित करने तक का समय उन विशिष्ट-प्रसवों के पास नहीं है, वे दिन-रात अतिवादी एवम् असत्य खबरों को आगे बढ़ाने में, उनकी सराहना करने में अपना जीवन खपा रहे हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि एक हिन्दी-साधक को लगातार पराजित करने की कुंठित-मानसिकता व पूर्वाग्रह के बावजूद मातृभाषा ही तो उसे ‘माँ ‘ की तरह सामने खड़े होकर हंसाती है, हौंसला बढ़ाती है और उसमें अपराजेय रहने का भाव जाग्रत करती है।
वीतराग मुखर्जी, मेरे वप्पा दादाजी ( देश के पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ) और मेरे दाऊदादाजी (पण्डित अटल बिहारी वाजपेयी ) का संतति-दल और आज की ‘ईस्टमैनकलर’ ( बहुरंगी) भाजपा ने लगता है कि केवल राजा और राजा ही बने रहने की विक्षिप्त- मानसिकता से अभिशप्त व श्रापित होकर अपने समूचे राजनीतिक-मैदान में ‘आप्रवासी ‘ एवम् ‘सर्वदलीय’ परिक्रमा-रथी काउण्टर खोल दिया है। 2012 में कांग्रेस से आये किरन रिजिजू और उत्तर-प्रदेश में कार्यरत सभी राजनीतिक-दलों में परिक्रमा कर सुख-साधन बटोरने वाले सत्य प्रकाश सिंह बघेल अब आपकी न्याय-नाव के खेवनहार हैं ।
यह देश मानता है कि मातृभाषा का एक व्यक्तिनिरपेक्ष एवम् परिस्थिति-निरपेक्ष साधक उच्च-न्यायालय या किसी उच्च-सोपान पर पहुँचकर भी सुख-साधन नहीं बटोरता बल्कि वहाँ भी मातृभाषा की प्रतिष्ठा ही करता, एक समर्पित ‘अदीब’ को उसके कृतज्ञ-राष्ट्र की तरफ से मिला यह पुरस्कार दुनिया में मिलने किसी भी सबसे बड़े पुरस्कार के मुकाबिल सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता रहेगा । आप्रवासियों एवम् सर्वदलीय-परिक्रमा-रथियों का असली ‘ब्लू-प्रिन्ट् ‘ जब नजर आयेगा जब अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, भगवा से ‘ सतरंगी-इन्द्र धनुष हुई भाजपा का तिलिसम खत्म होगा,तब भी क्या ये नवोदित व नौसिखिए राष्ट्रवादी तथा भगवाधारी दल के साथ रहेंगे? यह देखना दिलचस्प होगा!! अभी तो भारत-विजय अभियान चालू-आहे, फिलहाल हम उस नजारे का इंतजार ही करें
मातृभाषा के अडिग-अपराजेय साधक पर हुए लगातार प्रहारों के बावजूद ‘हिन्दी से न्याय’ यह देशव्यापी अभियान बहुत तेज-गति से दौड़ रहा है, जगह-जगह ‘हिन्दी से न्याय’ अभियान के साथी इसे गति दे रहे हैं। कुछ सच्चाईयां हैं जो देश के खबरिया-चैनल्स, पोर्टल, प्रिन्ट्-मीडिया और सभी संवाद-माध्यमों से गायब हैं। देश को यह सब इस प्रत्याशा के साथ प्रेषित है कि इन वीडियोज को पूरा सुनें और देखें तथा अपने अधिकतम् परिजनों, मित्रों, सहयोगियों एवम् परिचितों को प्रेषित करें । यह ‘भारत’ का ‘भारत’ के लिए अभियान है । इसमें भारत का तेज है, भारत का त्याग है, भारत का तप है, भारत का तत्व है, भारत का तर्क है, भारत का तारूणय है, भारत का तीर है, भारत की तलवार है, भारत की तिलमिलाहट है, भारत की तितीक्षा है, भारत का तीखापन है,भारत की सच्चाई है, भारत की अच्छाई है— ‘झूठ, फरेब, वाणी-विलास और छद्म-छलियापन नहीं हैं।