चार राज्यों में भाजपा की जीत के सियासी मायने

सियाराम पांडेय ‘शांत’

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव (Election Result) के नतीजे घोषित हो गए।  उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में जहां भाजपा (BJP) अपना कमल खिलाने में कामयाब रही, वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी (AAP) ने प्रचंड बहुमत के साथ जीत (Victory) हासिल की। इस चुनाव के अपने राजनीतिक निहितार्थ है।  विपक्ष ने  किसानों के मुददे पर, हिजाब के मुददे पर सरकार को घेरने की बहुतेरी कोशिश की।  कानून व्यवस्था केमुद्दे उठाए लेकिन भाजपा सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की अपनी नीति पर अडिग रही। उसने जातिवाद और परिवारवाद की बजाय विकास को तरजीह दी। इसी का परिणाम है कि तमाम विरोधों के बावजूद  जनता ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास किया और विपक्ष के इस मुगालते कोतोड़ा कि अब जनमानस के बीच नरेंद्र मोदी का क्रेज खत्म हो रहा है।  हालिया चुनाव नतीजों से एक बार फिर साबित हो गया है कि मोदी है तो सब मुमकिन है। विदेशों में फंसे भारतीय नागरिक भी सुरक्षित हैं और भारत में रह रहे लोग भी। मोदी की नजर में कोई विभेद नहीं है। उनके फैसले जाति-धर्म आधारित नहीं, राष्ट्र आधारित होते हैं।  जिसमें हर आम और खास का हित निहित होता है। सच कहा जाए तो इस चुनाव में राष्ट्रवाद और सुशासन की जीत हुई है। विकास की नीतिकी जीत हुई है। हारी है तो विपक्ष की राजनीतिक फितरत।  इस पर मंथन की जरूरत है।

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पंजाब में जनता कांग्रेस  और शिरोमणि अकाली  दल की परिवार वादी नीतियों  से परेशान थी। बादल परिवार और अमरिंदर परिवार का पंजाब की राजनीति पर लंबे समय से कब्जा रहा।  इन परिवारों को अपने हितों से ही फुर्सत नहीं थी, वे जनता का हित क्या करते? कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना कर कैप्टन अमरिंदर सिंह वैसे भी  कांग्रेस आलाकमान की नजरों में चढ़ गए थे। नवजोत सिंह सिद्धू के साथ छत्तीसी होते उनके रिश्ते  ने भी आग में घी डालने का काम किया। अमरिंदर सिंह को हटाकर कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को  पंजाब का मुख्यमंत्री बना दिया लेकिन सिद्धू चन्नी के भी पीछे हाथ धोकर पड़ गए और परिणाम सबके सामने हैं। कांग्रेस कहीं की नहीं रही।  दो की लड़ाई में तीसरा यानी आम आदमी पार्टी हावी हो गई। उसने पंजाब की 92 सीटों पर जीत हासिल कर ली। पंजाब में पैठ तो उसने वर्ष 2017 में ही बना ली थी। उस समय उसके 20 प्रत्याशी चुनाव जीते थे लेकिन इसके बाद भी अमरिंदर सिंह और सुखबीर सिंह बादल की छठी इंंद्री जागृत नहीं हुई। वे तूफान पूर्व के खतरे को भांप नहीं पाए और आज नतीजा अयां है। उनके सामने से सत्ता की थाल सरक गई है।  नीति और नीयत साफ न हो, काम दमदार न हो तो ऐसा ही होता है। परिवारवाद और जातिवाद की राजनीति थोड़े समय तो आनंद देती है लेकिन लंबी अवधि तक पल्लवित और पुष्पित नहीं हो सकती। जनहित को भी वरीयता देनी पड़ती है।  पंजाब में जीत से उत्साहित  आम आदमी पार्टी अब अन्य प्रदेशों की ओर भी अपना रुख कर रही है। उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में भले ही उसका प्रत्याशी न जीता हो लेकिन इन दोनों राज्यों में उसका अपना संगठन तो खड़ा हो ही गया है। गोवा में तो 6.8 प्रतिशत मत के साथ उसने अपना खाता भी खोल लिया है।  हरियाणा पर उसकी नजर पहले से ही है।  जाहिर है कि  पंजाब की जीत ने आम आदमी पार्टी के हौसले बुलंद कर दिए हैं।   इसी साल के  के अंत में  पर्वतीय राज्य हिमाचल में भी चुनाव होने हैं।  आम आदमी पार्टी  की हसरत वहां  भी  पंजाब सरीखा  प्रदर्शन करने की है।

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आम आदमी पार्टी के हिमाचल प्रदेश प्रमुख अनूप केसरी  की मानें तो हिमाचल वासी पारंपरिक राजनीतिक दलों  से  आजिज आ चुके हैं।  पंजाब की तरह की  आप  हिमाचल में भी इतिहास रचेगी। पार्टी पहाड़ी राज्य में अपने दम पर सरकार बनाएगी।  अरविंद केजरीवाल की इस पार्टी ने वर्ष 2017 में भी  हिमाचल प्रदेश की सभी 67 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन कदाचित सफलता उसके किसी भी प्रत्याशी के भाग्य में नहीं थी लेकिन पंजाब अपवाद रहा, वहां वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में आप के चार सांसद  और 2017 के विधानसभा चुनाव में 20 विधायक चुन लिए गए थे।   आम आदमी पार्टी का अराजक अंदाज हमेशा चौंकाने और देश को संकट में डालने वाला रहा है। दिल्ली में चाहे सीएए विरोधी आंदोलन की बात हो या किसान आंदोलन की बात, अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने आंदोलनकारियों का खुलकर साथ दिया था। ऐसा ही प्रयोग अगर वह पंजाब में करती है और खालिस्तान समर्थकों के अपने अनुराग को बरकरार रखती है तो पाकिस्तान से सटे पंजाब में हालात संभालना मुश्किल हो सकता है।

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गौरतलब है कि   उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा औरपंजाब  का परिणाम जब 11 मार्च 2017 को आया था तो उसमें  उत्तर  प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को भारी जनादेश मिला था। जबकि पंंजाब में कांग्रेस को  प्रचंड बहुमत मिला था।  इसके विपरीत गोवा एवं मणिपुर में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।   यह और बात है कि  कुछ समय बाद  राजनीतिक  चतुरता का परिचय  देते हुए  भाजपा  ने गोवा व मणिपुर  की सत्ता कांग्रेस से छीन ली।  हालिया  चुनावी नतीजे आये तो  भाजपा पूरी मजबूती के साथ चार राज्यों में अपनी सरकार बचाने में  न सिर्फ सफल रही बल्कि उत्तराखंड में  उसने राजनीतिक मिथक भी बदल दिया।  राज्य बनने के बाद से  अभी तक  वहां की सत्ता  में एक बार  भाजपा  और  दूसरी बार कांग्रेस को वहांकी जनता आजमाती रही है  लेकिन   इस तरह बारी-बारी का यह क्रम टूट गया है। भाजपा उत्तरा खंड में कई बार मुख्यमंत्री बदलने के बाद भी दो-तिहाई बहुमत पाने में सफल  रही है।  चिर अस्थिर राज्य गोवा में भाजपा  न केवल सरकार बचाने में सफल हुई है बल्कि पिछली बार के 13 विधायकों के मुकाबले  अपने 20 विधायक जिताने में भी कामयाब रही है।  देखा जाए तो  गोवा में भाजपा की यह लगातार तीसरी जीत है और राज्य बनने के बाद एक तरह से पहली बार यहां सियासी स्थिरता आयी है। पूर्वोत्तर के संवेदनशील राज्य मणिपुर में हालांकि लोकसभा की दो ही सीटें हैं लेकिन इस अशांत राज्य में जिस तरह भाजपा ने विभिन्न गुटों को मुख्यधारा से जोड़ा है, उसे किसी उपलब्धि से कम नहीं आंका जा सकता।

राज्य में राजनीतिक  स्थिरता ,  विकास के  प्रयास  का ही परिणाम है कि  पिछली बार जोड़तोड़ से  मणिपुर में सरकार बनाने वाली भाजपा  इस बार स्पष्ट बहुमत  पा सकी है।  उत्तर प्रदेश के  चुनाव  को  राजनीतिक हलके में दिल्ली का सेमीफाइनल माना जाता है। इसलिए योगी सरकार की दो-तिहाई बहुमत के साथ वापसी इस बात का प्रमाण है कि  भाजपा के लिए  वर्ष  2024 के लोकसभा  चुनाव में  जीत का रास्ता काफी आसान हो गया है। अगर  भाजपा  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुंह की खा जाती तो  अभी से विपक्षी एकता की कवायद  शुरू हो जाती।  वर्ष  2024 तो दूर,  अभी से  विपक्ष संसद से सड़क तक  उसकी चौतरफा घेराबंदी शुरू कर देता।  जनता सब समझती है। उसने हवा का रुख पहचान लिया वर्ना विपक्ष की राजनीतिक फितरत देश को विकासकी डगर से भटका देती।

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