आत्म परिष्कार का पर्व है दीपावली

आत्म परिष्कार का पर्व  है दीपावली

सियाराम पांडेय ‘शांत’

देश भर में दीप पर्व मनाया जा रहा है। भारत के सभी प्रान्तों में यह पर्व आनंद और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है।दुनिया भर में बसे और काम करने गए भारतवंशी अपने-अपने तरीके से दीपावली (Diwali) मना रहे हैं। अयोध्या का तो आनंदातिरेक ही अलग है। यहां त्रेतायुग की तरह दीपावली मनाई जा रही है। नौ वर्षों से अयोध्या में भव्य और दिव्य दीपोत्सव मनाया जा रहा है। साल.दर.साल वहां दीप प्रज्ज्वलन के पुराने रिकॉर्ड टूट रहे हैं। नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। देश-दुनिया के लोग इस विहंगम दृश्य को देखने के लिए आते हैं और सरकार के प्रयासों की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी करते है। जो नहीँ आ पाते, वे अपने कंप्यूटर, लैपटॉप, टेलीविजन और मोबाइल पर इस अद्भुत दृश्य के साक्षी बनते हैं। किसी पर्व को लोकरंजन, नवोन्मेष और अर्थोत्पादन का हेतु कैसे बनाया जा सकता है,दीपावली समूह के त्योहार इसकी विशद व्याख्या करते हैं।

दीपावली (Diwali) पर्व के प्रथम चरण धनतेरस पर अरबों-खरबों रुपए का कारोबार हर साल होता है।इस साल भी हुआ है।छोटी दिवाली पर अयोध्या में तकरीबन 29 लाख दीपको का जलना कुंभकारों की अर्थव्यवस्था को संजीवनी दे गया है। लक्ष्मी,गणेश और कुबेर की मूर्तियां बनाने वाले मूर्तिकार भी प्रमुखता से लाभान्वित हुए हैं। मतलब देश के धन का देश में ही पर्याप्त विनिमय हो रहा है। यह एक तरह से स्वदेशी का शंखनाद ही है। वैसे तो यह परम्परा आदिकाल से चली आ रही है,लेकिन तब इसमें आज की तरह का नवोन्मेष भले न रहा हो लेकिन उसमें सहजता और वैज्ञानिकता दोनों थी। तब दीपक जलाने की व्यवस्था राजा को नहीं करनी पड़ती थी। वह केवल इस अवसर पर 7 या 9 दिन के मेलों का आयोजन करता था,जिसमें प्रजाजन न केवल भाग लेते थे,अपितु स्वस्थ मनोरंजन भी प्राप्त करते थे। पहलवानों,कलाकारों पर दांव लगाकर एक तरह से उन्हें प्रोत्साहित भी करते थे।दीपावली उनके उत्साह और उमंग का हेतु तो थी लेकिन आज की तरह का दिखावा बिल्कुल नहीं थी। उसमें सर्वजन की खुशी निहित थी।जिस तरह दीपक सबके लिए जलता है,उसी तरह व्यक्ति को अपने साथ ही सबकी जिंदगी में रोशनी बिखेरने की कोशिश करनी चाहिए।

भारत में दिवाली (Diwali) मनाने के कोई एक ठोस कारण नहीं है। अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग कारण बताए गए हैं।अधिकांश में दीपमालिका पर्व के तत्वदर्शन की लगभग सुस्पष्ट व्याख्या है।बस उसे समझने और उस पर मनन करने की जरूरत है। रावण वध के उपरांत भगवान राम की अयोध्या वापसी के उपरांत उनके स्वागत में घर-घर ,गली,चौराहों और रास्तों पर दीप जलाने का जो सिलसिला तब शरू हुआ,वह आज तक चला आ रहा है। मौजूदा दीपावली और उसके उल्लास को कमोवेश इसी रूप में देखा जा सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्दशी को भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर उसके चंगुल से 16 हजार राजकुमारियों का उद्धार किया था। कृतज्ञता ज्ञापन स्वरूप दीपावली के दिन आरती-वंदन कर उनका नागरिक अभिनंदन किया गया था। तब से यह परंपरा चली आ रही है।

महाभारत में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 12 वर्ष के वनवास और एक साल के अज्ञातवास के बाद अपने राज्य में लौटे पांडवों का दीपमालिका सजाकर अभिनंदन किया गया था। स्कन्द पुराण,भविष्य पुराण और पद्म पुराण में दीपावली को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। अलगअलग आख्यान है लेकिन उन सबमें दीपदान और लक्ष्मी पूजन सर्वांगसम है।महाराज पृथु ने पृथ्वी का दोहन कर अन्न-धन प्राप्ति के साधनों का नवीनीकरण किया था और इस बहाने देश की दरिद्रता दूर की थी। इस सफलता के उपलक्ष्य में देश में दीपावली का प्रादुर्भाव हुआ था।

सनत्कुमार संहिता में दीपावली (Diwali) पर्व को वामन अवतार और राजा बलि के कब्जे से देवी लक्ष्मी और देवताओं को छुड़ाने और धरती को श्रीसम्पन्न बनाने से जोड़ा गया है। दैत्यराज बलि द्वारा भारी कराधान आदि से लूटे गए धन को संसार में विभक्त कर दिया था। इस लिहाज से देखा जाए तो यह उस दौर की सबसे बड़ी आर्थिक क्रांति थी । जैन धर्म के ग्रंथ कल्पसूत्र में लिखा है कि आज ही के दिन भगवान महावीर ने अपना शरीर छोड़ा था।तब देश-देशांतर से आए उनके शिष्यों ने निश्चय किया था कि ज्ञान सूर्य तो अस्त हो गया,अब दीपो का प्रकाश कर हमें यह दिन मनाना चाहिए। बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के उपरांत कार्तिक अमावस्या को ही कपिलवस्तु लौटे थे।

महर्षि कात्यायन ने अपने ग्रंथ काम सूत्र में तत्कालीन माहिमान्य उत्सव दीपावली को यक्षरात्रि के रूप में निरूपित किया है। सातवी सदी में हर्षवर्धन ने अपने नाटक नागानंद में दीपप्रतिपदुत्सव कहा है। उस दौर के ग्रंथ नील मत पुराण में कार्तिक अमायां दीप वर्णनम नामक एक अध्याय मिलता है। पुराणों में दीपावली को महानिशा कहा गया है। तांत्रिकों,मांत्रिकों और यांत्रिकों के लिए यह महापर्व है। यह महालक्ष्मी के आठो स्वरूपों के पूजन का पर्व तो है ही,साधना,उपासना,जागरण और जाप्य मंत्र की सिद्धि का भी पर्व है। दीपक आत्मा का प्रतीक है। सातवी सदी में हर्षवर्धन ने अपने नाटक नागानंद में दीपप्रतिपदुत्सव कहा है। उस दौर के ग्रंथ नील मत पुराण में कार्तिक अमायां दीप वर्णनम नामक एक अध्याय मिलता है।

पुराणों में दीपावली (Diwali) को महानिशा कहा गया है। तांत्रिकों,मांत्रिकों और यांत्रिकों के लिए यह महापर्व है। यह महालक्ष्मी के आठो स्वरूपों के पूजन का पर्व तो है ही,साधना,उपासना,जागरण और जाप्य मंत्र की सिद्धि का भी पर्व है। दीपक आत्मा का प्रतीक है। भगवान बुद्ध ने भी यही निर्देश किया है कि अप्प दीपो भव। अपना दीपक खुद बनो। दीपक प्रकाश का प्रतीक है। ज्ञान का प्रतीक है। साधना और पुरुषार्थ का प्रतीक है। महाराज मनु के दौर से ही कार्तिक भर अपने घरों के साथ ही, नदियों, तालाबों, कुंओं ,धर्मशालाओं, बागों व सार्वजनिक स्थलों पर रात में दीपक जलाने की परंपरा रही है। इसकी वजह यह है कि वर्षा ऋतु में विषैले जीव जंतु निकल आते हैं। दिन के उजाले में तो उन्हें देखा जा सकता है,लेकिन रात्रि के अंधेरे में वे जीवन पर भारी न पड़ें, इसलिए समशीतोष्ण माह कार्तिक में दीपदान की व्यवस्था पूर्वजों ने की थी। कार्तिक के बाद जब शीत ऋतु आती है तो विषैले जीवजंतु स्वतः अपने विवरों में चले जाते हैं।

दीपपुंज के प्रकाश और उष्णता से वर्षाजन्य रोग पैदा करने वाले कीटाणुओं का विनाश होता है। तेल का सुगंधियुक्त धुंआ वातावरण में फैलकर नस्य प्रणाली द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचता और शारीरिक रोगों से निजात दिलाता है। दीपावली (Diwali) व्यक्ति,समाज और राष्ट्र के सौंदर्य बोध का अभिव्यक्ति पर्व है। इस समय तक किसानों की फसल कट कर घरों और बाजार में आ जाती है,इस लिहाज से देखें तो यह जन-मन की प्रसन्नता और उल्लास का पर्व है।

भारत में दीपावली (Diwali) युगों-युगों से मनाई जा रही है लेकिन उसका शालीनता से मनाया जाने ही श्रेयस्कर है ।यह खाता-बही ठीक करने का अवसर तो है ही,शक्ति संचय और जीवन की दिशा के सुधार-परिष्कार का भी पर्व है। यह बाह्य और आंतरिक निर्मलता का पर्व है। केमिकलयुक्त तेल के धुएं और पटाखों की बारूदी गंध फैलाने की हाहाकारी प्रतिस्पर्धा से बचने का भी पर्व है।इसलिए हमें दीप ज्योति के स्वरूप को जानने और अपने भीतर-बाहर के अज्ञान अंधकार को मिटाने और सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन के प्रकाश को प्रकट करने की जरूरत है। यही देश में युगों-युगों से जलाई जा रही दिवाली का दिव्य संदेश भी है।