विवेकानंद की रसोई

Vivekananda

सुशोभित

ऐसा कौन-सा देश है, जिसमें सम्राट, संन्यासी और सूपकार तीनों को एक ही नाम से पुकारा जाता है? उत्तर बहुत सरल है। वह देश है भारत। और वह नाम है “महाराज”। एक भारत ही ऐसा देश है, जिसमें सम्राट भी “महाराज” कहलाता है, संन्यासी भी और सूपकार यानी “रसोइया” भी!

स्वामी विवेकानंद (Vivekananda) के जीवन के बारे में अद्भुत आश्चर्यदृष्टि से भरी मणिशंकर मुखर्जी की किताब “विवेकानंद : जीवन के अनजाने सच” के एक पूरे अध्याय का शीर्षक ही यही है : “सम्राट, संन्यासी और सूपकार”। यह अध्याय भोजनभट विवेकानंद (Vivekananda) के विभिन्न रूपों का परीक्षण करता है और मणिशंकर मुखर्जी का दावा है कि भारत में भोजन-वृत्ति पर गहन चिंतन करने वाले ऐसे कम ही लोग हुए होंगे, जैसे विवेकानंद थे!

किसी ने नरेननाथ के बारे में उड़ा दी थी कि वे दक्षिणेश्वर में परमहंसदेव से मिलने इसीलिए गए थे कि वहां पर्याप्त सोन्देश और रोशोगुल्ले खाने को मिलेंगे। फिर किसी अन्य मित्र ने यह कहकर इस प्रवाद का खंडन किया कि नरेन और मिठाई! अजी नहीं, नरेन तो मिर्चों के रसिक थे!

स्वामीजी की रसोई में सचमुच बहुत मिर्च होती थी!

18 मार्च 1896 को स्वामीजी डेट्रायट में अपने एक भक्त के यहां ठहरे थे। उससे उन्होंने अनुमति ली कि भोजन पकाने की आज्ञा दी जाए। आज्ञा मिलते ही उनकी जेब से फटाफट मसालों और चटनियों की पुड़ियाएं निकलने लगीं। चटनी की एक बोतल को वे अपनी मूल्यवान सम्पदा मानते थे, जो उन्हें किसी भक्त ने मद्रास से भेजी थी।

जनवरी 1896 की एक चिट्ठी का मज़मून पढ़िये : “जोगेन भाई, अमचूर, आमतेल, अमावट, मुरब्बा, बड़ी और मसाले सभी अपने ठिकानों पर पहुंच चुके हैं। किंतु भूनी हुई मूंग मत भेजना, वह जल्द ख़राब हो जाती है!”

30 मई 1896 की एक चिट्ठी में विवेकानंद (Vivekananda) का वर्णन है कि किस तरह से उन्होंने सिस्टर मेरी को तीखी करी बनाकर खिलाई। उसमें उन्होंने जाफ़रान, लेवेंडर, जावित्री, जायफल, दालचीनी, लवंग, इलायची, प्याज़, किशमिश, हरी मिर्च सब डाल दिया और अंत में यह सोचकर खिन्न हो गए कि अब यहां विलायत में हींग कहां से खोजकर लावें!

स्वामीजी आम, लीची और अनानास के भी भारी रसिक थे। स्वामी अद्वैतानंद से उन्होंने एक बार कहा था कि जो व्यक्ति फल और दूध पर जीवन बिता सकता है, उसकी हडि्डयों में कभी जंग नहीं लग सकती।

Vivekananda

बेलुर मठ में ख़ूब कटहल लगते थे। अपनी एक विदेशिनी शिष्या क्रिस्तीन को लिखे एक पत्र में स्वामीजी ने “कटहल-महात्म्य” का अत्यंत सुललित वर्णन किया है। अलबत्ता अमरूद से स्वामीजी को विरक्ति-सी थी।

अमरीका में स्वामीजी का मन आइस्क्रीम पर भी आ गया था। कलकत्ते में जब पहले-पहल बर्फ आई थी तो गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट स्थित “दत्त-कोठी” भी पहुंच गई थी, जहां नरेननाथ रहते थे। अमरीका जाकर वे चॉकलेट आइस्क्रीम पर मुग्ध हो गए। बाद में जब स्वामीजी को मधुमेह हुआ और आइस्क्रीम खाने पर मनाही हो गई तो वे पोई साग पर अनुरक्त रहने लगे। एक बार तो स्टीमर से समुद्र यात्रा के दौरान पोई साग खिलाने पर ही उन्होंने एक प्रेमी-भक्त को दीक्षा दे डाली थी!

एक बार ऋषिकेश में स्वामीजी को ज्वर हो आया। पथ्य के रूप में उनके लिए खिचड़ी बनवाई गई। खिचड़ी स्वामीजी को रुचि नहीं। खाते समय खिचड़ी में एक धागा दिखा। पूछने पर पता चला कि गुरुभाई राखाल दास ने खिचड़ी में एक डला मिश्री डाल दी थी। स्वामीजी बहुत बिगड़े। राखाल दास को बुलाकर डांट पिलाई कि “धत्त्, खिचड़ी में भी भला कोई मीठा डालता है। तुझमें बूंदभर भी बुद्धि नहीं है रे!”

“स्वामी-शिष्य संवाद” नामक एक पुस्तिका में स्वामीजी ने भोजन के दोषों पर भी विस्तार से वार्ता की थी। यह पुस्तिका “विवेकानंद ग्रंथावली” में सम्मिलित है।

विवेकानंद जहां भी जाते : कौन कैसे खाता है, कितनी बार खाता है, क्या खाता है, इस सबका अत्यंत सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते। फिर मित्रों को चिट्ठियां लिखकर विस्तार से बताते।

एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा : “आर्य लोग जलचौकी पर खाने की थाली लगाकर भोजन पाते हैं। बंगाली लोग भूमि पर खाना सपोड़ते हैं। मैसूर में महाराज भी आंगट बिछाकर दाल-भात खाते हैं। चीनी लोग मेज़ पर खाते हैं। रोमन और मिस्र के लोग कोच पर लेटकर। यूरोपियन लोग कुर्सी पर बैठकर कांटे-चम्मच से खाते हैं। जर्मन लोग दिन में पांच या छह बार थोड़ा थोड़ा खाते हैं। अंग्रेज़ भी तीन बार कम कम खाते हैं, बीच बीच में कॉफ़ी और चाय। किंतु भारत में हम दिन में दो बार गले गले तक भात ठूंसकर खाते हैं और उसे पचाने में ही हमारी समस्त ऊर्जा चली जाती है!”

स्वामी विवेकानंद के महापरिनिर्वाण के पूरे 40 वर्षों बाद बंगभूमि में भयावह दुर्भिक्ष हुआ था! अगर विवेकानंद होते तो उनकी आत्मा को भूखे बंगालियों का वह दृश्य देखकर कितना कष्ट हुआ होता! वे भूखों को भोजन कराने के लिए अपने मठ की भूमि बेचने तक के लिए तत्पर हो उठते थे। कहते थे कि जब तक भारतभूमि में एक भी प्राणी भूखा है, तब तक सबकुछ अधर्म है!

अपने एक शिष्य शरच्चंद्र को स्वामीजी ने चिट्ठी लिखकर भोजनालय खोलने की हिदायत दी थी। कहा था : “जब रुपए आए तो एक बहुत बड़ा भोजनालय खोला जाएगा। उसमें सदैव यही गूंजता रहेगा : “दीयता:, नीयता:, भज्यता:!” भात का इतना मांड़ होगा कि अगर वह गंगा में रुलमिल जाए तो गंगा का पानी श्वेत हो जाए। देश में वैसा एक भोजनालय खुलते अपनी आंखों से देख लूं तो मेरे प्राण चैन पा जाएं!”

अस्तु, स्वामी विवेकानंद की “भोजन-रस-चवर्णा” की गाथाएं भी उनके अशेष यश की भाँति ही अपरिमित हैं।

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